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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024

मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद(जनपद बिजनौर) से अमन कुमार के संपादन में त्रैमासिक शोधादर्श का मक्खन मुरादाबादी अंक : इस अंक में हैं मक्खन मुरादाबादी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर देश के साहित्यकारों सर्वश्री मनोहर अभय, गिरीश पंकज, डॉ कृष्ण कुमार नाज, जिया जमीर, हेमा तिवारी भट्ट, भोलाशंकर शर्मा, डॉ अजय अनुपम, डॉ शंकर क्षेम, ए. टी. जाकिर, डॉ धनंजय सिंह, डॉ महेश दिवाकर, डॉ प्रदीप जैन, मंसूर उस्मानी, डॉ सुशील कुमार त्यागी, डॉ मनोज रस्तोगी, डॉ काव्य सौरभ जैमिनी, अशोक अंजुम, डॉ सुभाष वसिष्ठ, मनोज जैन, मुजाहिद चौधरी, डॉ अनिल शर्मा अनिल और राहुल शर्मा के सारगर्भित आलेख डॉ मक्खन मुरादाबादी के संस्मरण, अभिनव गीत, गजलें और कविताएं साथ में उनके विभिन्न चित्र और भी बहुत कुछ....। निश्चित रूप से 102 पेज का यह दस्तावेजी अंक संग्रहणीय है।

 


क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरा अंक 

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डॉ मनोज रस्तोगी 

8,जीलाल स्ट्रीट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत  

वाट्स एप नंबर 9456687822


रविवार, 3 नवंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की पंद्रह ग़ज़लें......

 


1.

बाढ़!नदी की जब भी बदले बहती धारा

तहसीलों में    हो जाता है   वारा - न्यारा 


सुनवाई पर  लग जाते हैं   खास मुकदमे 

आम आदमी   फिरता रहता  मारा-मारा


लोकतंत्र की उनको चिंता  सबसे ज़्यादा 

कर घोटाले    मान जिन्होंने   पाया सारा


धूल फाइलें     रहीं चाटती   दफ्तर में ही 

नेग नहीं जब तक  हमने   बाबू  पर वारा 


खपा ज़िन्दगी एक  मुकदमे में ही अपनी 

जीत गया वह अपना सबकुछ हारा-हारा


लगना तो था  सीमेंट मगर मिलीभगत से 

लगा पड़ा है   मिल रेते में  खालिस  गारा


2.

तेल निकल आया  घानी में,पता  चलेगा  चार  जून को

कौन  रहा  कितने  पानी में,पता  चलेगा  चार  जून को

 

हाथ  लगा  कुछ  या  सूने  ही  रस्ते  नापे  गाल  बजाते 

हासिल क्या कड़वी बानी में,पता चलेगा  चार  जून को

 

सबने अपना  ज्ञान बघारा जितना  था उससे भी ज़्यादा  

अंतर  ज्ञानी-अज्ञानी  में,पता   चलेगा   चार   जून  को

 

अपनी-अपनी  हाँक रहे सब  किसकी पार  लगेगी नैया 

किसकी  भैंस  गई  पानी में,पता  चलेगा  चार  जून को

 

लड्डू खाकर उछलोगे या,सोचोगे तुम पिछड गए क्यों 

इस सत्ता की अगवानी  में,पता चलेगा  चार  जून  को

 

गोढ़ रखी थीं हर दिन गाली शब्दकोश के बाहर की सब

क्या निकला खींचातानी  में,पता  चलेगा  चार जून  को


मजबूरी  में  हाथ   मिले थे  या स्वाभाविक थे गठबंधन 

हारे   किसकी  निगरानी में,पता  चलेगा  चार  जून  को

 

इनके   दावे   उनके   दावे    झूठे   सच्चे   कैसे   भी  हैं 

दम निकला किसकी नानी में,पता  चलेगा चार जून को


जाने  कैसे   क्या कर बैठे  और कहाँ पर   गच्चा खाया 

समझदार   ने   नादानी    में,पता चलेगा  चार जून  को

3.

दिनभर  हाथ  राम  के जोड़े 

और  रात को   कूमल  फोड़े


वैद्य  दवा  तब  लेकर  आए   

रिसन लगे जब सबके फोड़े 


निकल गए सब  छापों में ही 

बिना   कमाए  जितने  जोड़े 


वोट  बढ़ाने   की कोशिश में  

बैठे  हार   अक्ल   के   घोड़े 


गाली  पर   गाली  दे   गाली  

कीर्तिमान  सदियों  के  तोड़े 


जूँ  ना  रेंगी  किसी कान पर  

रेवड़ियों    ने     रस्ते    गोड़े


मिलीभगत  की  लूट-पाट ने 

कूप  सभी  खाली  कर छोड़े


आजादी    में   ठाठ    हमारे 

पुरखों   ने   खाए   थे   कोड़े


जो भी   आए   पार   उतरने 

पाप  किए  हैं   ज्यादा  थोड़े 

4.

वादे    आए     भर-भर   बोरी 

पूर्ण हुए  कुछ  कुछ  की  चोरी 


है  वेतन  अब   लाखों  में, पर

नहीं      छूटती      रिश्वतखोरी 

 

चिज्जी  देती    माँ   बच्चों  को 

छुपा-छुपाकर         चोरी-चोरी 


चक्कर काट    अदालत के भी 

नहीं     मानते        छोरा-छोरी


ब्लैक कलर का  लड़का भी तो 

दुल्हन    चाहे     चिट्टी     गोरी 


पास   निरंतर    हो   जाता   है 

कॉपी  रखकर    आता   कोरी 


बाँस   बाँसुरी   तब   बनता  है 

करनी    पड़ती    उसमें   सोरी


सुनते    ही   बच्चे    सो   जाते  

ऐसी   औषधि   माँ  की   लोरी 


पूरे   घर   की    देखभाल   को   

खुली   छोड़ते   घर   में    मोरी 


5.

इधर-उधर संकट ही संकट कहने को है बात जरासी 

प्यास बुझाई जिसने सबकी है वर्षों से खुद वह प्यासी  


जग भर का साहित्य व्यस्त है एक कहानी की चर्चा में 

पढ़ कर देखो उपन्यास है कहने को है सिर्फ कथा सी   


गौरव मिलना बहुत जरूरी उस नट को भी कलाकार सा

खेल खिलाती जिसकी मुनिया लगती सबको पूर्ण कला सी 


अब तो बेटी बदल रही है किस्मत अपने घर वालों की 

बेटा घर में ना होने पर पसरी क्यों फिर आज उदासी 


सबके घर में बच जाता है ज्यादा या फिर थोड़ा खाना 

फिर भी अपने इर्द-गिर्द ही रहती क्यों है भूख बला सी


अरमानों की फूँके होली मन मारे सब खड़े हुए हैं 

भीड़ देखिए सबके सब ये बनने आए हैं चपरासी 


चन्दा पर तो प्लाट कटेंगे होगी खेती-बाड़ी शायद   

कौन चाँदनी बिखरायेगा सोच रही है पूरनमासी


6.

किस  दुनिया  में  पहुँची  माँ ।

प्यारी  -  प्यारी       मेरी  माँ  ।।

पड़ी   दूध   में   रहती     थी,

सदा    बताशे        जैसी माँ  ।।

उपवन  सब   बेकार     लगे,

जब  फूलों सी  खिलती  माँ  ।।

मेरी    भूल     दिखावे   को,

बादल  जैसी   तड़की    माँ  ।।

लगी  सदा  थी  खिचड़ी  में,

देसी   घी  के    जैसी    माँ   ।।

मैंने  भी   कविता  लिक्खी,

लिखवाने  वाली  भी    माँ    ।।


  7.     

 हँसते   रहिए , हँसते   रहिए 

और  दिलों  में  बसते  रहिए।


इस दुनिया को हँसी बाँटकर 

ख़ुश रखने को  जगते रहिए।


बतरस में जिसने विष घोला 

उस विषधर  को डसते रहिए।


दुख  बोता  है  जो जीवन में 

उससे   थोड़ा   बचते   रहिए।


जग  फुव्वारा  एक  हँसी का

इसमें खुद भी  खिलते रहिए।


सौ  मर्जों  की   एक  दवा है 

मार   ठहाके   हँसते   रहिए।


हँसी   चीरती   सन्नाटों   को 

इसकी  कसरत करते रहिए।


8.

तालमेल यदि है तो घर की गाड़ी आप धिकलती है 

गलियारे  गाने  लगते  हैं  जब  बारात  निकलती  है 


साँझ-सवेरे अपने हों तो दिन भी अपना ही समझो 

वरना पैरों के नीचे से मंज़िल रोज़ फिसलती है


धाराशाई तब हो जाते हैं पहलवान नौसिखियों से 

जब दंगल में उनसे उनकी ही तकदीर विचलती है   


मतदाता को झोंक दिया है जात औरआरक्षण में 

वोट विभाजन की चतुराई नेताओं को फलती है 


बोझ लाद कर के फ्यूचर का भेज दिया था कोचिंग को 

खबर आत्महत्या की आई जाने किसकी ग़लती है 


राजनीत के दल सारे ही दुबले निर्धन के मारे 

किन्तु ग़रीबी जम बैठी है घर से नहीं निकलती है 


9.

इधर-उधर जो करना था वह कर बैठा है 

अब भीतर-भीतर उसका ही  डर बैठा है 


आखिरकार नहीं सुधरा उद्दंडी बालक 

विद्यालय से नाम कटा अब घर बैठा है


खेती जिसको दी बोने को,रखवाली को

जाने किस हिकमत से उसको चर बैठा है 


आना-जाना नहीं छूटता उसके घर का 

कहता रहता है वह उस पर मर बैठा है 


नहीं मयस्सर थी जिसको सूखी रोटी भी 

उसको देखो देसी घी में तर बैठा है 


पीते-पीते खेत बचा था दो बीघा बस 

आखिर आज उसे भी गिरवी धर बैठा है 


राजनीति नाली में रोज़ गिरेगी अक्सर 

हर नेता में भाव दुश्मनी गर बैठा है 

10.

उनके घर तो रिमझिम-रिमझिम कहकर ग़ज़ल गए 

मेरे घर तक आते-आते बादल बदल गए।।


नानी के घर जाने को जैसे ही मना किया 

एका करके गोल बनाकर बच्चे मचल गए।।


पहले अपनी जेब भरी पटवारी जी ने फिर 

मेरे हक़ का ही मुझको दिलवाने दखल गए।।


उनका नाम करेगा उनका मेधावी बेटा 

सारे घर वाले मिलकर करवाने नकल गए।।


बोई तो थी रामसरन ने ज्ञात सभी को था 

पर,ले अमला मुखिया जी कटवाने फसल गए।।


जो सरकारी मदद दिलाने आए विपदा में 

अपनी-अपनी सेवा करवा सारे डबल गए।


आम इलेक्शन सिर्फ अदावत अब तो आपस की 

गाली खाकर गंगा न्हाने मुद्दे असल गए।

11.

जिसने मन से राम उचारे

पहुँच गए वह उसके द्वारे


भवसागर से पार लगाते

दो छोरों के राम किनारे


छोड़ जिदों को एक रहेंगे

समझें जो हम राम इशारे


इसके उसके राम सभी के

राम हमारे......राम तुम्हारे


राम भला ही करते सबका

हर बिगड़ी के...राम सहारे


राम काज में लड़ना कैसा

सबमें उनका नाम बसा रे


बीत रही जो, बीती जो या

हर लीला के...वही सितारे


उनकी निन्दा करने वाले

खुद को अब मत और गिरा रे


रावण ने भी....उनको माना

तब जाकर वह कहीं तिरा रे


हर उसने ही.....राम पुकारा

विपदा में...जो कहीं घिरा रे


पुण्य हमारे...तब ही फलते

जब हमने हों....पाप निथारे


भूत चढ़ा हो जब मिटने का

उसको कैसे.....कौन उतारे

     

12.

अद्भुत सुन्दर सबसे न्यारे

अचरज लगते राम हमारे


ग़ैर नहीं हो अपने ही हो

तुम भी ठहरे राम-दुलारे 


उनके दर्शन करले वाला

और निहारे और निहारे


घर से उनके विस्थापन ने 

रामचरित ही खूब निखारे 


चमत्कार कर सकते थे वह 

टिके रहे जो न्याय सहारे


उल्टे लटके उत्तर पाकर

राम विरोधी प्रश्न तुम्हारे 


सहनशील मर्यादा जीती 

गूँज उठे पुरुषोत्तम नारे 


घोर विरोधी मन्दिर जाकर

माँग रहे अब गद्दी सारे


13.

डूबा सूरज कल निकलेगा 

अँधियारे का हल निकलेगा


ज्ञान तनिक सा मिल तो जाए

खोटा सिक्का चल निकलेगा


बर्फ़ जमा है जितनी जग में

उसका होकर जल निकलेगा


स्वर्ण हिरण के पीछे-पीछे

दौड़ोगे तो छल निकलेगा


प्यास अगर है मन में सच्ची

कदम-कदम पर नल निकलेगा


दुख को भी मेहमान समझना

छक जाने पर टल निकलेगा


ठहरे ग़म को छाँट दिखाओ 

खुशियों वाला पल निकलेगा


रोप दिए को पानी तो दो

पौधा-पौधा फल निकलेगा


14.  

बात सुना!कुछ ताजा कर

दे दस्तक, मत भाजा कर 


ग़म भी साझा कर लेंगे 

इधर कभी तो आजा कर।


मुँह का स्वाद बदल देगी 

चटनी से भी खाजा कर ।


सतत सनातन गाने को

जा बढ़िया सा बाजा कर।


ओछों को गरियाने दे

सुन!उनको भी राजा कर।


सहना अपनी आदत है 

तू इतना मत गाजा कर।           

15.

अगर भलाई कल की सोचें।

सबसे पहले जल की सोचें।।


उलझे रहते हो झगड़ों में 

आओ इनके हल की सोचें।।


अपनी प्यास भूलकर दो पल

औरों के घर नल की सोचें।।


विफल रहे हैं अबतक हम तुम।

अब तो अच्छे फल की सोचें।।


बातचीत से काम बनें सब

कभी नहीं हम बल की सोचें।।


करें परस्पर घुल मिल बातें

नहीं किसी से छल की सोचें।।


मक्खन जी दे रहे परीक्षा

सभी परीक्षाफल की सोचें।।


✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

 झ-28, नवीन नगर

 काँठ रोड, मुरादाबाद

बातचीत:9319086769

रविवार, 29 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (9).....कटना तो खरबूजे को ही है

   


डॉ. पी.सी.जोशी संभवतः सन् 1972 के मध्य तक के.जी.के.महाविद्यालय, मुरादाबाद के प्राचार्य रहे। उनके बाद मथुरा के प्रोफेसर डॉ. बी.एल. शर्मा प्राचार्य के पद पर आसीन हुए, पर वह भी अधिक दिन नहीं टिके। उनके बाद जब मैं सन् 1974 में एम.ए.प्रीवियस का विद्यार्थी था तब प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप प्राचार्य पद पर आसीन हुए।प्रबंधक ने उनकी नियुक्ति कार्यवाहक प्राचार्य के पद पर डॉ.बी.एल.शर्मा के पद छोड़ने के बाद की थी। सन् 1976 में प्रशासन के अधीन हुआ महाविद्यालय संभवतः सन् 1976-77 शैक्षिक सत्र के अंतिम दिनों में प्रबंधन समिति के हाथों में वापिस आ गया था।यद्यपि मेरी अस्थाई प्रवक्ता के पद पर पहली बार नियुक्ति प्रोफेसर मेजर पी.एन.टंडन के प्राचार्य रहते सन् 1976 के फरवरी माह में हो चुकी थी। मेरी यह अस्थाई नियुक्ति तत्कालीन महाविद्यालय के प्रशासक /जिलाधिकारी फरहत अली साहब के हस्ताक्षरों से एप्रूव हुई थी, जो केवल दो महीने के लिए ही थी। महाविद्यालय प्रबंध समिति के हाथों में आने पर प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप को हटा कर डॉ. आर.एम. माथुर प्राचार्य बना दिए गए। नवंबर सन् 1977 में मेरी पुनर्नियुक्ति डॉ.आर.एम.माथुर के रहते ही हुई और मुझे प्रबंधक के हस्ताक्षरों से नियुक्ति-पत्र मिला। मेरी उस दिन की खुशी अपार थी।

    मैं पिछले सत्र में नियुक्त होकर जब पहली कक्षा पढ़ाने गया, तो पूरी कक्षा भरी हुई थी। कक्षा के आगे का बरामदा भी खचाखच भरा हुआ था।इस स्थिति को देखकर उस दिन प्राचार्य मेजर पी.एन.टंडन की अनुपस्थिति में ऑफीसिएट कर रहे डॉ.जी.एस.त्रिगुणायत मेरे कक्ष में आए और मुझे निर्देशित किया कि त्यागी पहले अटैंडेंस लो,तब पढ़ाओ। मैंने त्रिगुणायत सर से कहा कि सर आप चिन्ता मत कीजिए मैं सब सँभाल लूँगा।वह चले गए और मैंने अपना परिचय देते हुए कक्ष में एकत्रित छात्रों के समक्ष सामान्य वक्तव्य दिया। विद्यार्थी प्रभावित हुए और जो उस कक्षा के विद्यार्थी नहीं भी थे वह भी संतुष्ट होकर कक्षा से अपने आप ही बाहर निकलते गए तथा कक्षा में केवल अधिकृत  विद्यार्थी ही रह गए। तत्पश्चात मैंने अधिकृत विद्यार्थियों का संक्षिप्त परिचय जाना। पैंतालीस मिनट का घंटा भी पूरा होने को ही था, घंटा बज गया। मैंने विद्यार्थियों को कहा कि कल से पढ़ाई शुरू। अध्यापन के पहले दिन के पहले घंटे की इतिश्री इस प्रकार करके मैं बहुत प्रसन्न था।कई अन्य प्रोफेसर ने भी मुझे क्लास हैंडिल करते हुए देखा और मुझसे संतुष्ट हुए तथा मेरे कक्षा से बाहर आने पर उन सभी ने मुझे जमकर बधाई दी।

          दूसरे दिन मैं पूरी तैयारी के साथ कक्षा में गया और अपनी पूरी ऊर्जा से पढ़ाया। विद्यार्थियों की ओर से आई शंकाओं के समाधान भी संगत और सटीक सुझाए। विद्यार्थी प्रसन्न हुए। मेरे पढ़ाने की विद्यार्थियों में हुई प्रशंसा की कानाफूसी उड़ती हुई मेरे विभागीय वरिष्ठों और अन्य प्रोफेसर्स तक भी पहुँच गई। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे टाइम टेबल में विभागाध्यक्ष जी ने मुझे एक पीरियड एम.ए (प्रीवियस) और एक पीरियड एम.ए. ( फाइनल) का एलाट करके टाइम टेबल फाइनल कर दिया। मैं एम.ए. की दोनों कक्षाओं में गया तो विद्यार्थियों से जानना चाहा कि वह मुझसे क्या पढ़ना चाहते हैं? एम.ए.(प्रीवियस) के विद्यार्थियों ने कहा - "हजारी प्रसाद द्विवेदी की 'बाणभट्ट की आत्मकथा' और "नई कविता' जिन्हें विद्यार्थियों को पिछले कई सत्रों से नहीं पढ़ाया गया था। एम.ए.(फाइनल) के विद्यार्थियों ने मुझसे "साहित्य शास्त्र और समालोचना" पढ़ाने का आग्रह किया।मेरे लिए यह कठिन तो था लेकिन असंभव नहीं था। मैंने पढ़ाने के लिए घर पर छ:-छ: घंटे पढ़ने में लगाए लेकिन छात्रों को शीशे जैसा करके पढ़ाया। विद्यार्थी मुझसे पढ़ने को लालायित रहने लगे। यहाँ तक की कुछ विद्यार्थी अपनी छठी कक्षा छोड़ कर 12 बजे ट्रम्बे से अमरोहा निकल जाते थे,वह भी कक्षा में आने लगे और मेरी वह कक्षा भी भर गई जिसमें कि सन्नाटा पसरा रहता था।

     अस्तु! प्रशासनिक व्यवस्था में जाने के बाद केजीके महाविद्यालय लगभग एक वर्ष में ही उस व्यवस्था से मुक्त होकर मैंनेजमैंट के हाथों में वापिस आ गया था। प्राचार्य डॉ.आर.एम.माथुर साहब इस उपलक्ष्य में एक भव्य आयोजन कराना चाहते थे।मैंनेजमैंट और प्राचार्य जी की योजना तत्कालीन उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महामहिम डॉ.श्री एम. चेन्नारेड्डी जी को आमंत्रित करने की बनी। उन दिनों महामहिम महाविद्यालयों के दौरों पर खूब जा रहे थे और अध्यापकों की खाट जमकर खड़ी कर रहे थे, यहाँ तक कि कभी-कभी ऐसा कुछ भी बोल जाते थे जो उनके पद की गरिमा के लिए भी शोभनीय नहीं था। हमारे महाविद्यालय के प्रबंधन को भी महामहिम के कार्यालय से डेट मिल गई थी। संभवतः फरवरी अंत या मार्च प्रारंभ की डेट थी।जब महामहिम के कार्यक्रम को सफल बनाने पर जोरों पर मीटिंग्स हो रहीं थीं तो एक दिन मुझे भी मीटिंग में बुलाया गया। मैं गया, प्राचार्य जी ने मुझे विस्तृत कार्यक्रम से अवगत कराते हुए कहा कि कारेन्द्र तुम्हें इस कार्यक्रम में अपने मक्खन मुरादाबादी की भूमिका का निर्वहन करना है और एक कविता यह लक्ष करके पढ़नी है कि विद्यालयों, महाविद्यालयों में एडमिनिस्ट्रेटर बैठाना उचित नहीं है क्योंकि संस्थाओं की अपनी साख गिरती है और उनका नियमित शिक्षण कार्य बाधित होकर पिछड़ता है। मैंने प्राचार्य जी को बताया कि सर,उस दिन तो मेरी प्रथमा बैंक की परीक्षा है। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हें किसने कहा कि तुम्हें अन्य कहीं नौकरी करने की आवश्यकता है। नौकरी में हो न।अब तुम कहीं नहीं जाने वाले। मैंने प्राचार्य जी का आदेश माना जबकि प्रथमा बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष मेरी हसनपुर मित्र मंडली के घनिष्ठ मित्रोँ में थे। अस्तु मैंने उस आयोजन के लिए रचना रच डाली। प्राचार्य कार्यालय में उपस्थित सभी ने सुनकर बहुत वाहवाही की। विद्यालय अपनी तैयारी में और मैं अपनी तैयारी में जुट गए। एक बड़े अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में सहभागिता जो करनी थी।

       वह दिन भी आया जब महामहिम महाविद्यालय में प्रविष्ट हुए और उनके प्रटोकोलीय सम्मान के साथ उनको महाविद्यालय के सभा भवन में ले जाया गया। उन्होंने अपना आसन ग्रहण किया। प्रारंभ में कुछ औपचारिकताएं संपन्न हो जाने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में सरस्वती वंदना और महामहिम के स्वागत गान के साथ भव्य आयोजन का  प्रारम्भ हुआ। सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला के बीच ही मुझे कविता पाठ के लिए आमंत्रित कर लिया गया। मेरी कविता में प्रबंध समिति का गुणगान और प्रशासनिक व्यवस्था पर कुछ प्रश्न उठाए गए थे।वह पूरी कविता मेरे पास आज कहीं भी नहीं है लेकिन जो उसका निचोड़ था उसके लिए ये पंक्तियाँ थीं -----

"क्या फर्क पड़ता है 

खरबूजा छुरे पर गिरे

या खरबूजे पर छुरा,

किसका भला होता है 

किसका बुरा।

कटना तो खरबूजे को ही है!"

इस रचना को पढ़कर मैं सभा भवन से बाहर निकल आया था। सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था। कुछ देर बाद मैं सभागार में लौट गया और सीट देखकर बैठ गया। भव्य कार्यक्रम का भरपूर आनन्द लिया।अब महामहिम की बारी थी। उन्होंने मेरी कविता की निन्दा करते हुए अपनी बात शुरू की और उस पर बोलते गए, निशाने पर मैं था। मुझे बाहर ड्यूटी पर तैनात एस.पी. साहब ने एक सिपाही को भेजकर बुलवाया। मैं बाहर आया और उनसे मुखातिब हुआ तो उन्होंने मुझसे कहा कि मक्खन जी आप घर चले जाइए। महामहिम का कोई भरोसा नहीं है कि वह कहें कि इस कवि मास्टर को अरैस्ट कीजिए। मैं विद्यालय से घर चला आया। अगले दिन महाविद्यालय जाने पर मेरी खूब पीठ थपथपाई गई। वह दिन बीत गया, और दिन बीतते गए लेकिन महामहिम की इस झल्लाहट का केजीके इंटर कॉलेज के प्रवक्ता आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद खन्ना जब तक रहे तब तक मुझे देखते ही कहते - " कटना तो खरबूजे को ही है !" उन्होंने आजीवन इसका खूब आनन्द लिया। उनकी स्मृतियों को प्रणाम।

 ✍️डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

मोबाइल : 9319086769 


सोमवार, 16 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (8).....शर्मिंदगी ओढ़ कर खिलखिलाए, हम दोनों


मैंने सन् 1970 के जून में आर.एन.इंटर कॉलेज, मुरादाबाद से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जुलाई माह में केजीके कॉलेज का स्नातक विद्यार्थी हो जाने के बाद जब वहाँ के बारे में जाना तो ज्ञात हुआ कि जिस महाविद्यालय में मैंने प्रवेश लिया है,वह कोई सामान्य महाविद्यालय नहीं है, बल्कि आगरा विश्वविद्यालय का ख्याति प्राप्त प्रथम श्रेणी का महाविद्यालय है, क्योंकि वहाँ के कला संकाय के सभी विभागों के अध्यक्ष उस समय उच्च कोटि के विद्वानों में गिने जाते थे। प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप (हिन्दी), प्रोफेसर एच.एस.शर्मा (अंग्रेजी), डॉ.जी.एस.त्रिगुणायत(संस्कृत), डॉ.आर.एम.माथुर (भूगोल), डॉ .बी.एस.वर्मा (राजनीति शास्त्र), डॉ.आर.के. टंडन (मनोविज्ञान), डॉ.बी.पी.कपूर (अर्थशास्त्र) और श्री रामौतार (सैन्य विज्ञान) विभागों के अध्यक्ष थे। ये सभी आगरा विश्वविद्यालय में अपने विषय के सर्वाधिक विद्वान प्रोफेसर्स माने जाते थे। इनमें से कई की प्रतिष्ठा तो देश में दूर-दूर तक ही नहीं बल्कि विदेशों तक फैली हुई थी।इन विभागाध्यक्षों के अलावा हिन्दी में डॉ. शिव बालक शुक्ल,अंग्रेजी में श्री एन.एल.मोइत्रा तथा श्री एन.के.मेहरा और सैन्य विभाग में अशोक आंवले के समकक्ष विद्वान उस समय कम ही रहे होंगे।

     तत्समय महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ.पी.सी.जोशी थे।संभवतः कुछ ही समय पूर्व उनकी नियुक्ति प्रो. महेन्द्र प्रताप जी के विपरीत वरीयता देकर की गई थी।सुना था कि वह बहुत योग्य व्यक्ति हैं। देखने में नाटे कद के आकषर्क व्यक्तित्व के व्यक्ति थे किन्तु उनकी गुटबाजी में विशेष रुचि थी। वह अब इस दुनिया में अब नहीं हैं, इसीलिए अब उनके विपरीत कुछ अधिक कहना ठीक नहीं है।पर,यह कहने में मुझे लेशमात्र भी संकोच नहीं है कि उन्होंने हर जगह कार्य करने वाले लोगों में दो विचार धाराओं के व्यक्ति होने का लाभ उठाया। यहाँ भी स्टाफ में दोनों विचारों के लोग थे। कुछ प्रबन्धक के विरोधी भी थे,किन्तु अधिकतर प्रबन्धक के समर्थक ही थे। फिर भी प्राचार्य जोशी जी ने महाविद्यालय में विवाद पैदा कर ही दिया और एक आठ-दस लोगों का खेमा प्राचार्य के पक्ष में करके प्रबन्धक के विरूद्ध खड़ा कर दिया। दूर-दूर तक जो महाविद्यालय शान्तिपूर्ण माहौल में पढ़ाई के लिए प्रसिद्ध था, वह उखाड़-पछाड़ के लिए प्रसिद्ध होने लगा और इस सबकी चर्चाएँ सुनने को मिलने लगीं।

        अस्तु!मैंने प्रवेश लेने के बाद वहाँ की सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था और महाविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने के लिए स्थानीय महाविद्यालयों तथा अन्य संस्थाओं और संगठनों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में भागीदारी करने जाने लगा था।  हमारे महाविद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के लिए "स्पीकर्स फोरम" का प्लेटफार्म था, जिसके अध्यक्ष अँग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.एच.एस. शर्मा थे। उन्होंने फोरम का मंत्री मुझे नियुक्त कर दिया था। कई छात्र फोरम के सदस्य नामित किए गए थे। जिनमें से भोला शंकर शर्मा, दिनेश टंडन, अशोक शर्मा,अनुकाम त्रिपाठी आदि प्रमुख थे। फिर भी बाहर की प्रतियोगिताओं में मुझे और भोला शंकर शर्मा को ही भेजा जाता था,क्योंकि हम दोनों एक टीम के रूप में स्थानीय स्तर पर विद्यालय के लिए कई शील्ड ला चुके थे। हम दोनों पर स्पीकर्स फोरम के अध्यक्ष प्रो. एच.एस.शर्मा जी को बड़ा  विश्वास था। उनके लिए हम दोनों वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के सर्वाधिक उपयुक्त प्रतिभागी थे। एक ओर महाविद्यालय प्राचार्य जी के अपने हितों को साधने में पतन के रास्ते की ओर बढ़ चला था,पर मैं और भोला शंकर शर्मा तो वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में शील्ड पर शील्ड लाकर महाविद्यालय का नाम रोशन करने में लगे थे।

       हमारे महाविद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का कहीं से भी कोई निमंत्रण आता तो मैं और भोला शंकर तैयारी में लग जाते। मुझे और भोला को तैयारी के लिए अन्य किसी की सहायता नहीं लेनी पड़ती थी बल्कि भोला मेरी सहायता करते थे और मैं उनकी।हम लोग एक-दूसरे से सवाल यह करते थे कि बताओ विषय के पक्ष में तुम क्या बोलोगे? इस प्रकार विषय के पक्ष और विपक्ष में हम एक दूसरे के विचार जानकर एक-दूसरे को अपने विचार सुझाते थे और वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिए तैयार हो जाते थे।

               उस समय गोकुल दास कन्या महाविद्यालय सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए मुरादाबाद में अग्रणीय महाविद्यालय था। वहाँ की प्राचार्या डॉ. ज्ञानवती अग्रवाल भी इनमें बहुत रुचि लेती थीं और हम दोनों को तो अपनी छात्राओं जैसा ही महत्व देती थीं और दूसरों से भी हमारी भूरि-भूरि प्रशंसा  किया करती थीं।भोला शंकर शर्मा और मैं संभवतः एम.ए.के छात्र थे। मैं हिन्दी प्र.व. का छात्र था और भोला शंकर शर्मा एम .ए . द्वि .व. अर्थशास्त्र के। गोकुल दास कन्या महाविद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का बड़ा आयोजन था। हमारा महाविद्यालय भी आमंत्रित था। महाविद्यालय का आथर्टी लेटर लेकर हम दोनों वहाँ पहुँच गए। गोकुल दास महाविद्यालय में प्रवेश करने पर प्राचार्या जी के सामने पड़ते ही हमने हाथ जोड़कर अभिवादन किया और आगे बढ़ने लगे। उन्होंने पुकारा मक्खन सुनो! मक्खन इसलिए की मैं मक्खन मुरादाबादी नाम से ख्यात होने लगा था,तो सबकी जुबान पर यही नाम चढ़ गया था।उनकी सुनो! सुनकर हम दोनों ठिठके और पीछे मुड़कर उनके समक्ष खड़े हो गए। उन्होंने कहा कि अब तुम दोनों प्रोफेशनल डीबेटर हो गए हो। तुम्हारे मुकाबले में भला कौन खड़ा हो पाएगा? अब तुम दोनों को इन बच्चों के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए।हम दोनों ने उन्हें वचन दिया कि आदरणीया आज के बाद से।आज तो हम आ ही गए हैं। हमारे महाविद्यालय ने हमें प्रतिभाग करने भेजा है। उन्होंने गर्दन हिलाकर सहमति दी और हमने उस डीबेट में भाग लिया तथा शील्ड लेकर चले आए लेकिन मुझे लगता है कि उस दिन आदरणीया डॉ. ज्ञानवती अग्रवाल जी ने अपने कब्जे के सारे कोरे प्रमाण-पत्र हमारे नाम लिखकर हस्ताक्षर करके हम दोनों को सौंप दिए थे। क्या ऐसा होता है कहीं?हम नसीब वाले थे, हमारे साथ हुआ। गोकुल दास महाविद्यालय की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेने का वह दिन हमारा अंतिम दिन था।

       सन् 1974 में मैं और भोला शंकर आगरा 

विश्वविद्यालय की एक डीबेट में भाग लेने गए थे।हम समय से डीबेट में नहीं पहुँच पाए थे। हम जब पहुँचे थे डीबेट समाप्त हो चुकी थी।अगले दिन शिकोहाबाद के ए.के. डिग्री कॉलेज में डीबेट थी। हमें उसमें भी प्रतिभाग करना था। रात को हम आगरा रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में रहे। उस समय स्टेशनों पर इतनी भीड़-भाड़ नहीं होती थी और न ही आज जैसी चैकिंग। हम रात को बड़े आराम से रहे और सुबह को तैयार होकर ट्रेन से शिकोहाबाद निकल लिए। डीबेट में हिस्सा लिया और शील्ड अपने महा विद्यालय के नाम कर ली।

            जो बात मैं बताने जा रहा हूँ, वह बात सन् 1976 की है। मैं सन् 1975 में एम.ए. करके फरवरी 1976 में केजीके महाविद्यालय में ही प्रवक्ता पद पर अस्थाई नियुक्ति पा गया था,जो थी तो मार्च तक ही पर वार्षिक परीक्षाओं के दवाब में जून तक चली थी। अगस्त 1976 में झाँसी से एक डीबेट का निमंत्रण आया था।उस समय डॉ.आर.एम.माथुर महाविद्यालय के कार्यवाहक प्राचार्य थे। मुझे और भोला शंकर शर्मा को झांसी  भेजने के लिए उनके आदेश पर हमारी तलाश हुई लेकिन तब  मैं और भोला शंकर शर्मा महाविद्यालय की किसी भी कक्षा के विधिवत छात्र नहीं थे। प्राचार्य जी के बुलावे पर हम दोनों उनके समक्ष प्रस्तुत हुए। उन्होंने तत्काल बड़े बाबू बिष्ट जी को बुलाया और आदेश दिया कि भोला शंकर शर्मा का एडमिशन हिन्दी प्रथम वर्ष में कर दो।और सुनो ! इनसे प्रवेश शुल्क नहीं लेना है। भोला जी बिना कुछ खर्च किए  ही महाविद्यालय के विधिवत छात्र हो गए। मैं, क्योंकि पीएचडी के लिए विश्वविद्यालय में एनरोल्ड हो चुका था तो महाविद्यालय का विधिवत छात्र हो ही गया था। इस प्रकार हम दोनों ही महाविद्यालय के विधिवत छात्र हो गए थे। हम दोनों के विवरणीय प्रपत्र तैयार कराए गए और रसायन विज्ञान के प्रोफेसर आर.एम.मेहरोत्रा जी को टीम मैनेजर बनाकर हमें उनके हवाले कर दिया गया। 

             हम दोनों ने खूब तैयारी की और निर्धारित डेट की प्रात: हम प्रोफेसर आर.एम.मेहरोत्रा जी के साथ झांसी पहुँच गए। डीबेट में हिस्सा लिया। बहुत बढ़िया परफॉर्म भी किया,पर हमरी टीम कोई स्थान न पा सकी। शायद भोला शंकर को सांत्वना पुरस्कार मिला था, ठीक से याद नहीं। वहाँ से खाली हाथ लौटने पर हम दोनों ने ही महसूस किया कि कभी-कभी ऐसा भी होता है,जैसा कि हुआ। हम दोनों ने इस पर चर्चाएं 

तो अक्सर बहुत बार की हैं, किन्तु कभी कोई टिप्पणी नहीं की। हमारे साथ गए प्रोफेसर आर.एम.मेहरोत्रा जी को अपने किसी व्यक्तिगत कार्य से अगले दिन तक वहीं रूकना था । हमारे रुकने की कोई व्यवस्था नहीं थी,इसीलिए हम देर रात की किसी ट्रेन से चलकर प्रातः ही आगरा पहुँच गए,क्योंकि वहाँ रुकने के लिए हमारे पास रेलवे के वेटिंग रूम का अच्छा अनुभव था। आगरा से मुरादाबाद के लिए ट्रेन रात को ग्यारह बजे के आसपास थी। स्टेशन पर पहले रुक ही चुके थे और अब भी स्टेशन के ही वेटिंग रूम में रुक गए।

                पूरा दिन काटना था। पैसा ट्रेन किराए से थोड़ा-बहुत ही अधिक हमारे पास था। जैसे-तैसे हमने दिन काटा और देर शाम को झुकमुका होने पर सामान लॉकअप में रखकर हम शहर के भ्रमण पर निकल लिए। घूमते-घूमते बैंड बजता हुआ सुनाई दिया। हम उसी दिशा में बढ़ लिए। बारात चढ़ रही थी।हम दोनों परस्पर ही हाय हैलो करते हुए बारात में सम्मिलित हो लिए और बारात के साथ ही भोजन करने के स्थान पर पहुँच गए। पेट में चूहे कूद रहे थे। बड़ी भूख लगी थी। नज़र प्लेट कांउटर पर थी कि जैसे ही कोई प्लेट उठाए तो हम भी प्लेटों पर झपटें। जैसे ही प्लेट किसी एक ने उठाई वैसे ही हम दोनों ने प्लेट उठाकर सलाद,अचार और चम्मच लेकर खाने के स्टाल्स पर जाकर खाना परोस लिया और दोनों ने आपस में बातें करते-करते छक कर खाया।उस समय बारात की खातिरदारी के लिए जनमासे में पान और सिगरेट भी हुआ करते थे। हमने दोनों ने मीठा पान भी खाया और दो -दो सिगरेट उठा कर जेब के हवाले कर लिए। सिगरेट मैं पीता था। भोला इस शौक में नहीं थे। उन्होंने यह जो किया अपने मुझ मित्र की सुखद यात्रा के लिए किया। बातें करते-करते हम दोनों पंडाल से ऐसे निकल आए जैसे कि हम ही सबसे महत्वपूर्ण बाराती हैं।वहाँ से रेलवे स्टेशन बहुत दूर नहीं था, चहल-कदमी करते हुए ही स्टेशन पहुँच लिए। लॉकअप से सामान लिया और टिकिट विंडो से मुरादाबाद का टिकट लेकर गाड़ी  आने के निर्धारित प्लेटफार्म पर पहुँचकर उसकी  प्रतीक्षा करने लगे।

        प्लेटफार्म की ओर आती हुई गाड़ी के इंजन की लाइट दिखाई दी। प्लेटफार्म पर बैठे,खड़े और चहल-पहल करते बतियाते प्रतीक्षा करते यात्रियों में हलचल शुरू हुई। गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर लगी और यात्रीगण बिब्बो में घुसने लगे। सबकुछ सहज था। कोई आपाधापी नहीं थी।उन दिनों पैसेंजर ट्रेनों में भीड़ भी नहीं होती थी। मैं और भोला भी एक डिब्बे में चढ़ गए। हमने खाली देखकर तीन वाली सीट पर अपना सामान रख दिया। उसके सामने वाली सीट के ऊपर की सामान रखने वाली सीट पर एक सज्जन चादर ओढ़े खर्राटों का आनन्द ले रहे थे।भोला शंकर शर्मा ने उनके पाँव की ओर खड़े होकर हल्की सी उनकी चादर 

खींच दी।वह तिलमिलाए और एक पैर भोला की तरफ झटक कर मारा। भोला को पैर नहीं लगा पर,वह कुछ करने ही वाले थे की चादर ओढ़े उन्होंने उठ बैठकर अपना मुँह उघाड़ दिया। भोला सँभले और उन्होंने अनजान बने रहकर कहा-" अरे! डीपू सर,आप।" हम दोनों शर्मिंदगी ओढ़ कर खिलखिलाए। महाविद्यालय में प्रोफेसर साहब को डीपू सर ही कहा जाता था।वह कुछ ऐसा-वैसा कहते किन्तु उन्होंने भी कोई विपरीत प्रतिक्रिया नहीं दी और बोले - "अच्छा हुआ कि तुम लोग मिल गए। अब साथ-साथ मुरादाबाद पहुँचेंगे और हम प्रातः को साथ-साथ मुरादाबाद स्टेशन पर गाड़ी से उतर गए।

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

मोबाइल : 9319086769 

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सोमवार, 9 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (7 )...... तो क्या मैं मक्खन मुरादाबादी हुआ होता



सन् 1971-72 का शैक्षिक सत्र था। मेरी बी.ए.(प्र.व) की पढ़ाई चल रही थी। हुल्लड़ जी द्वारा प्रकाशित और संपादित मासिक पत्रिका " हास परिहास " में भाई अतुल टंडन (ए.टी.जाकिर) और कौशल कुमार शर्मा के साथ मैंने भी हाथ बँटाना शुरू कर दिया था। दादा प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप जी के घर आना-जाना और उनके परिवार में घुलना-मिलना आगे बढ़ने लगा था और इसके अतिरिक्त उस उम्र में कुछ युवाओं में जो गतिविधियाँ विकसित हो जाती हैं,वह भी संयमित भाव से विकसित होकर गतिशील थीं। मेरे कन्धों पर जो भी दायित्व थे, उन सभी का निर्वहन  भली-भाँति हो रहा था। 

     हास-परिहास में मुझ पर सर्कुलेशन मैनेजर का दायित्व था और अतुल टंडन (ए.टी.जाकिर) प्रबंध संपादक तथा कौशल कुमार शर्मा सह संपादक के दायित्व का निर्वहन कर रहे थे। हुल्लड़ जी और हम तीनों के प्रयासों से "हास परिहास " कुछ ही महीनों में चल निकली थी। यहाँ तक की ए.एच.व्हीलर पर भी बिक्री के लिए एप्रूवल प्राप्त कर चुकी थी और ए.एच व्हीलर के बुक स्टॉल्स पर उपलब्ध थी। उस समय ए.एच.व्हीलर एक वह कंपनी थी जो पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री के लिए रेलवे स्टेशनों पर बुक स्टाल्स की ठेकेदारी करती थी। उसका मुख्यालय इलाहाबाद में था। रोडवेज के बस अड्डों के  बुक स्टालों पर भी हास परिहास बिक्री के लिए अपना स्थान बनाने लग गई थी क्योंकि मुझ पर सर्कुलेशन मैनेजर का दायित्व था,तो मुझे पत्रिकाओं के गट्ठर लेकर बुक स्टाल्स पर पत्रिका पहुँचाने और हुई बिक्री की धनराशि कलेक्ट करने बस से आना-जाना पड़ता था। मैं हँसी-खुशी आता-जाता था और इसे खूब एन्जॉय भी करता था। इस सबके साथ पढ़ाई भी ठीक चल रही थी और कविताएँ भी ठीक-ठाक होने लग गई थीं।

         तीन दिसंबर 1971 को पाकिस्तान-भारत युद्ध शुरू हो गया था। देश में 'ब्लैक आउट' की घोषणा हो चुकी थी।प्रेम परिन्दों के लिए अच्छा समय था। सायं से लेकर प्रातः काल तक कोई लाइट नहीं जलती थी। अंधकार ही छाया रहता था।इसी का नाम 'ब्लैक आउट' था। इस ब्लैक आउट में मुझे भी कुछ नए अनुभव हो रहे थे,जो मेरी प्रेम कथा से सम्बंधित थे। अपनी प्रेम पींगें बढ़ रही थीं और भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना को खदेड़ कर उस पर चढ़ रही थी।16 दिसम्बर को पाकिस्तान की ओर से एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी गई। युद्ध विराम की घोषणा के तत्काल बाद मुझसे एक रचना हुई - " ब्लैक आउट "।

     वह रचना मैंने अपने मित्रवत बड़े भाई अतुल टंडन ( ए.टी.ज़ाकिर ) को सुनाई। उन्होंने उसकी जमकर तारीफ की और कहा यह तो तुमसे हास्य-व्यंग्य की बहुत ही शालीन और श्रेष्ठ रचना हो गई है। माँ सरस्वती की विशेष कृपा हुई है, तुम पर।इस रचना से तुममें हास्य-व्यंग्य का कवि होने की संभावना बोल रही है, तुम हास्य-व्यंग्य के कवि हो जाओ। मैं शुरू में " अकेला " उपनाम लगाता था। उसके बाद " नवनीत " उपनाम लगाने लगा था।उस समय नवनीत उपनाम से ही तुकबंदियाँ करता था। मित्र भाई अतुल टंडन ( ए.टी.ज़ाकिर ) ने अपने आप ही हुल्लड़ मुरादाबादी की तर्ज़ पर मेरा नाम नवनीत के पर्याय मक्खन से " मक्खन मुरादाबादी " रख दिया और उन्होंने ही  जब इस रचना को यह कहकर हुल्लड़ जी को सुनावाया कि नवनीत जी अब " मक्खन मुरादाबादी " हो गए हैं। हुल्लड़ जी बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि यह अच्छा हुआ क्योंकि कि उन्होंने भी अपने नन्हें बेटे का नाम नवनीत रखा हुआ था। हुल्लड़ जी ने रचना सुनी और सुनकर मन से प्रशंसा कर मुझे खूब प्रोत्साहित किया।

       पाकिस्तान से युद्ध समाप्ति की घोषणा के बाद दिसम्बर अंत में "हास-परिहास" की ओर से टाउन हॉल, मुरादाबाद के विशाल प्रांगण में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था। उस समय हास-परिहास की टीम में हुल्लड मुरादाबादी, कौशल शर्मा,ए.टी.ज़ाकिर और मेरे अतिरिक्त इंडस्ट्रीयल डिजाइन गैलरी के प्रबंधक रमेश चंद्र आज़ाद, प्रतिष्ठित एडवोकेट शैलेन्द्र जौहरी, स्टील के व्यापार में लगे कमल किशोर जैन और व्यापार में ही लगे सी.डी.वार्ष्णेय तथा महेन्द्र नाथ टंडन मुख्य रूप से जुड़े थे।इस टीम द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में हुल्लड़ मुरादाबादी जी ने मुझे भी नवोदित कवि के रूप में काव्य पाठ का अवसर प्रदान कर दिया। माँ सरस्वती की कृपा से ही " ब्लैक आउट "रचना हुई और माँ की कृपा से ही इतने विशाल श्रोता गण के समक्ष मुझे काव्य पाठ का अवसर मिल गया और मैं इतना जम गया जिसकी किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी, मैंने तो बिल्कुल भी नहीं।

        मैं अगले दिन जब शहर में निकला तो मेरी ओर सड़क के दोनों ओर से उँगलियाँ उठ रही थीं कि देखो वह जा रहे हैं - " मक्खन मुरादाबादी "। बाजार में कई दुकानदारों ने मुझे बुलाया, बिठाया और खूब प्रशंसा की तथा चाय नाश्ते से बेहतरीन खातिरदारी भी। सब इतना खुश और गौरवान्वित थे कि मैं भी उनकी मनोभावनाओं की खुशियों में तैर गया। मुझे पहली बार लगा कि उँगलियाँ अच्छे कार्यों की ओर भी उठती हैं। परिणामत: कवि सम्मेलन में आए कवियों की संस्तुतियों पर मैंने बीसियों कवि सम्मेलन कर डाले। पहचान मिली और लिफाफे में धनराशि भी। मैं बी.ए.(प्रथम वर्ष) का छात्र कारेन्द्र देव त्यागी एक ही झटके में " मक्खन मुरादाबादी " हो गया और मुझे पुकारा जाने वाला संबोधन 'नवनीत' गायब हो चला।यहाँ तक कि मेरा मूल नाम कारेन्द्र देव त्यागी भी " मक्खन मुरादाबादी " के सामने पिछड़ने लगा और मैं हास्य-व्यंग्य कवि " मक्खन मुरादाबादी " होकर ख्याति पाने लगा।

     हर किसी के बनने और बिगड़ने के कुछ क्षण होते हैं। बनाने में अपने साथ होते हैं और बिगाड़ने में अपनों के ही कुछ हाथ होते हैं। बिगाड़ने वाले हाथों के चंगुल से जितनी जल्दी मुक्त हो जाओ, उतना अच्छा है । पर,यह भी गाँठ बाँध लेने वाली बात है कि बनाने वाले हाथों के स्मृति भरे पलों को पूजा की थाली में गणेश रूपा मिट्टी की डली को कलावा लपेट कर न रखो तो इससे बड़ी कृतघ्नता समाज में कोई दूसरी नहीं हो सकती। मुझे लेकर ही सोचिए,माँ शारदे ने यदि मुझसे " ब्लैक आउट " न लिखवाई होती और भाई ए.टी.ज़ाकिर ने मुझमें हास्य-व्यंग्य की संभावनाओं की परख करके मुझ " नवनीत " को "मक्खन मुरादाबादी " नाम न दिया होता तथा हुल्लड़ जी ने मुझे हास-परिहास के अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में प्रस्तुति का अवसर न प्रदान किया होता, तो क्या मैं मक्खन मुरादाबादी हुआ होता?

 

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी 

झ-28, नवीन नगर 

काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001

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गुरुवार, 5 सितंबर 2024

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'सवेरा' एवं 'अक्षरा' के तत्वावधान में तीन सितंबर 2024 को वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के गीत-संग्रह ‘गीतों के भी घर होते हैं' का लोकार्पण समारोह

"शहरों से जो मिली चिट्ठियां, 

गांव-गांव के नाम। 

पढ़ने में बस आंसू आये, 

अक्षर मिटे तमाम।" 

जैसे संवेदनशील गीतों के रचनाकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के गीत-संग्रह ‘गीतों के भी घर होते हैं' का लोकार्पण मंगलवार तीन सितंबर 2024 को साहित्यिक संस्था - 'सवेरा' एवं 'अक्षरा' के तत्वावधान में काँठ रोड मुरादाबाद स्थित मिगलानी सेलीब्रेशंस के सभागार में किया गया। 

युवा कवि प्रत्यक्ष देव त्यागी द्वारा डॉ मक्खन मुरादाबादी द्वारा लिखित सरस्वती वंदना की प्रस्तुति से आरम्भ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकांत गुप्त ने कहा "डा. मक्खन मुरादाबादी के गीत संभावना से सार्थकता तक की यात्रा के साक्षी हैं, उनकी रचनाधर्मिता लोक मंगल के लिए समर्पित है। संग्रह के गीत देशज अनुभूतियों की गहरी अभिव्यक्ति हैं।"

 मुख्य अतिथि के रूप में प्रख्यात साहित्यकार मंसूर उस्मानी ने कहा कि "मक्खन जी को हास्य व्यंग्य कवि के रूप में दुनिया जानती है लेकिन उन्होंने गीत रचकर एक तरह से चौंकाने का काम किया।उनके गीत यह साबित करते हैं कि उनके भीतर शुरू से ही गीत कहीं नहीं पनपते रहे हैं।" 

विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर ने कहा कि "सहज और सरल भाषा में लिखे गये मक्खन जी के गीत मन को छूते हैं।" 

विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा कि "चूँकि मक्खन जी व्यंग्य कवि हैं, इसलिए उनके गीतों में भी सशक्त व्यंग्य के दर्शन होते हैं। उनके यहाँ आम आदमी की दौड़-धूप, उसकी समस्याएँ और उन समस्याओं का निदान आसानी से देखा जा सकता है।" 

 कार्यक्रम का संचालन करते हुए चर्चित नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने डॉ मक्खन मुरादाबादी की गीत यात्रा पर केंद्रित गीत ....

उन्होंने अपने आलेख का वाचन भी किया। उन्होंने कहा ‘'मक्खन जी के गीतों से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उनकी यह अभिनव गीत-यात्रा लोकरंजन से लेकर लोकमंगल तक की वैचारिक पगडंडियों से होती हुई निरंतर आगे बढ़ी है।"   

    वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि "डॉ मक्खन मुरादाबादी के गीतों में जहां समाज की पीड़ा का स्वर मुखरित हुआ है वहीं राजनीतिक विद्रूपताओं को भी उजागर किया गया है। अपने गीतों के माध्यम से वह पाठकों को सामाजिक सरोकारों से  जोड़ते हैं तो राष्ट्र के प्रति कर्तव्य का बोध भी कराते हैं।"

शायर ज़िया जमीर ने कहा-"ये गीत ज़िंदगी और समाज की कड़वी सच्चाइयों को सिर्फ दिखा नहीं रहे बल्कि ज़िंदगी की आंख में आंख डालकर उससे सवाल कर रहे हैं, यकीनन इस गीत संग्रह ने डॉ मक्खन मुरादाबादी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक तमग़ा और लगा दिया है।"  

 कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा- "आपके गीत पढ़ना जीवन को एक नई दृष्टि देता है। हृदय के उच्च भावों को अपने समृद्ध शब्दकोश से चयनित श्रेष्ठ शब्दों की पोशाक पहनाना, शब्दों की मितव्ययिता के साथ ही उन्हें उनके सटीक स्थान पर रखना,जैसी लेखन टिप्स को उन्होंने सोदाहरण अपने गीतों के माध्यम से लेखकों की नव पीढ़ी को समझा दिया है।"               महाराजा हरिश्चन्द्र डिग्री कालेज के प्रबंधक डॉ काव्य सौरभ जैमिनी ने कहा कि "मक्खन जी ने अपने गीतों के माध्यम से सरलता व कोमलता के साथ यथार्थ को समाविष्ट कर एक अभिनव पहल की है। उनके गीतों में विषय की विविधता एवं संवेदनाओं का विस्तार है। बौ‌द्धिक चेतना से ओतप्रोत इन गीतों में वैचारिक गांभीर्य है।" 

     इस अवसर पर लोकार्पित कृति- ‘गीतों के भी घर होते हैं' से मक्खन मुरादाबादी जी के गीत का पाठ करते हुए वरिष्ठ कवयित्री डा. प्रेमवती उपाध्याय ने सुनाया- 

" गीत वंदना करते-करते, 

अभिनव बोल रहा है।

 नव स्वर नव लय ताल छंद नव, 

सबको तोल रहा है।"          

   वरिष्ठ कवयित्री डा. पूनम बंसल ने मक्खन जी का गीत सुनाया-

"अर्थहीन हो चुका बहुत सा, 

उसको मानी दो। 

प्यासे झील नदी नद पोखर 

सबको पानी दो।" 

      कवि राजीव प्रखर ने मक्खन जी का गीत सुनाया- 

"कुछ ऐसा भी जग में, 

इसके गहरे अर्थ निकलते। 

वसुधा होना क्या समझें 

जो फसलें रोज निगलते।" 

       कवि मयंक शर्मा ने भी मक्खन जी का गीत सुनाया- 

"बाहर से जो कभी न दिखते, 

पर सबके भीतर होते हैं। 

मानो या मत मानो लेकिन, 

गीतों के भी घर होते हैं।" 

 कार्यक्रम में वरिष्ठ कवि वीरेंद्र सिंह बृजवासी, शिव मिगलानी, आर.के.जैन, समीर तिवारी, दुष्यंत बाबा, अशोक विश्नोई, मनोज मनु, खुशी त्यागी, नकुल त्यागी, रघुराज सिंह निश्चल, अक्षरा तिवारी, अतुल जैन, सुभाष आदि उपस्थित रहे। आभार अभिव्यक्ति अक्षिमा त्यागी ने प्रस्तुत की।